मुश्किल सी घडी में
वक़्त की पड़ी छड़ी में
यादों की बेतार जुडती कड़ी में
नन्ही , बड़ी चोटों की झड़ी में
अक्सर मन है रुन्धाया
अपना बचपन बहुत याद आया ...
बड़े होने की यात्रा में
सुख , दुःख की घटती बढती मात्रा में
अँधेरे और रोशनी की कशमकश में
सच और झूठ की पेशोपेश में
अपनों ने यूँ है संभाला बचाया
कि अपना बचपन बहुत याद आया
इम्तहानो के दौर में
झुर्राते डराते शोर में
चुप्पी से ग्रसित भोर में
नियति पर ना चलते ज़ोर में
जब लगता है सब तानाबाना माया
ऐसे में अपना बचपन बहुत याद आया
हर शब् के बाद है सुबह , तम के बाद सहर
यही सच दुःख में भी नहीं बरपाता कहर
अज़ल की त्रास है समझे जाने की तलब
भर जातें हैं घाव अक्सर यूँ ही बेसबब
माँ की पुचकार ने जब जब सहलाया
सच ,अपना बचपन बहुत याद आया ..
रुका नहीं वक़्त अच्छा तो बुरा भी रुकेगा कैसे
तारी ही तो है दामन, सिलेगा नहीं भला कैसे
नज़र सीधी रहे उसकी तो कट ही जाता है वक़्त जैसे तैसे
बड़ों की सीख ने ऐसे जब जब समझाया
सच ,अपना बचपन बहुत याद आया ..
आओ बुन लें ख्वाब छोड़ दें ग़म को
गा लें, रक्स करें झंझोड़ दें तम को
रुक रही हो राह ए ज़िन्दगी तो चला लें मन को
तलाश लें जज़ीरे अपने, ,तराश लें फन को
जब जब उम्मीद का परचम है फहराया ..
सच , अपना बचपन बहुत याद आया
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