Thursday, June 24, 2021

Elan Vital - Sumedha Kataria Talks- 13

ऊर्जा अपरिमित श्रृंखला - त्रयोदश कड़ी



साथियों, कभी आपने सोचा है कि किन वजूहात से अपने घर के  परिवेश हमारी औरा, ऊर्जा और मूड एकदम गड़बड़ हो जाता है और हमारे तनाव का कारण बनता है, कभी कभी तो ऐसी स्थिति सुबह सुबह ही बन जाती है परिणामतः पूरे दिन की ऊर्जा असंतुलित हो जाती है. 

मुझे ऐसा लगता है अनम्यसकता को ट्रिगर करता हैँ क्लटर यानी अस्तव्यस्त पड़ी, फैली हुई चीज़ेँ (scattered, disordered) वस्तुएं जो हमारी गति या रूटीन मे बाधा डाल दें, देरी का कारण बनें या confusion create कर दें. आज की इस कड़ी मे हम मुख्य रूप से physical clutter  की ही चर्चा करेंगे. क्लटर के कई सवरुप हैँ -भौतिक या physical clutter यानी पुराने बर्तन, कपडे, बैग्स, बुक्स, पुराना फर्नीचर, गिफ्टआइटम्, पेपर्स, पैकिंगज़ यानी वो सब जिनकी एकदम वर्तमान मे आवश्यकता ही नहीं है,  पर वो हैँ.  अन्य किसमें हैँ -इमोशनल या भावनात्मक  क्लटर यानी हमारे द्वारा कैरी किये हुए नकारात्मक मानसिक प्रभाव (negative psychic impressions) शिकायतें, कुंठायें, गिलट, भय;  मनोवैज्ञानिक क्लटर यानी  हमारे पूर्वाग्रह  आशंकाऐं; मानसिक या मेन्टल क्लटर यानी हमारी अंदरूनी गांठे, बंधन जो हमारे  स्वभाव को प्रभावित करते है, हमारे व्यक्तित्व के स्वरुप का निर्माण करते हैँ. हमारी याददाश्त कभी कंप्यूटर की तरह चेतावनी नहीं देती स्पेस कवव कमी का, इसलिए हम ख्याल ही नहीं करते और भरते चले जाते हैँ भूतकाल की स्मृतियों, वर्तमान के नाहक से ख्यालों से.
क्लटर बुखार की तरह है, अगर
समय रहते इसका निस्तारण या प्रबंधन ना किया जाए तो ये बिगड़ जाता है  इतना कि हम निराश या उदासीन हो जाते हैँ कि इतने सामान का अब कुछ नहीं हो सकता, 'प्या रहे जिथे प्या रहे'.  ज़ब थोड़ा हमारा मूड सही होता है तो हम अपने आप से वायदा करते हैँ कि दो छुट्टियां मिलेंगी ना , पहला काम यही करना है घर को सही करना है या ये कि 'अब कि बार दिवाली पे जब  सफाई अभियान चलाएंगे तो फालतू का सब सामान  पक्कम्पक्का निकल देंगे', और हमारे ये वायदे नए साल के प्रॉमिसस की मानिंद जल्द ही टूट जाते हैँ. वायदे और इम्प्लीमेंटशन के अंतराल के दौरान और और और और सामान भर जाता है घर की छत पर, पिछले आँगन मे, लॉन के किसी कार्नर मे, स्टोर की ऊपर साइड पर या अलमारी के भीतर, किचन के स्टोर मे इत्यादि इत्यादि. 'क्या करें समय ही नहीं मिलता, पता नहीं छुटटी इतनी जल्दी क्यों ख़त्म हो जाती है' हमारी टालने की प्रवृत्ति हमारे परिवेश को बुरी तरह भर देती है हमारी अपनी सहमति और प्रतिभागिता के साथ! विडंबना ये है कि विक्टिम भी हम ही बनते है  जब कभी तैयार होते हुए मैचिंग चीज़ेँ, खाना बनाते हुए राशन की कोई चीज घर मे होते हुए नहीं मिलती. लबोलबाब ये कि हाथ जलने पे बरनोल नहीं मिलता, बुखार के लिए थरमामीटर.

ये क्लटर है क्या, आता कँहा से है?
Clutter is a pile of mess that needs sorting out and it has the  tendency to get out of control.

बिखरा बिखरा सा साज़ ओ सामान है
हम कंही, दिल कंही, अकीदा कंही

हमारी अनिर्णय की प्रवृति  बहुत हद तक इसके लिए ज़िम्मेवार होती है  क्यूंकि हम ये निर्णय नहीं कर पाते कि फलां चीज क्या सचमुच इतनी ज़रूरी हैकि उसे सहेजें चाहे स्थान हो ना हो. हमारी स्वाभावतः ना फेंकने की, सब संभाल के रखने की आदत का कोई तर्क नहीं है पर  क्लटर एक  वायरस की भान्ति है जिसका संक्रमण हर घर मे पाया जाता है- हमारे निजी पर्स, हमारी बेड साइड ड्रावर इसका छोटा सा उदाहरण हैँ. क्लटर गलत या बुरा नहीं समझा जाता, इसे समान्यतः घर घर की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है.  यंहा तक कि संग्रहन को लालायित मानसिकता का विरोध करने का अर्थ है, पन्गा मौल लेना, हर्ट करना, चार सुनना इसलिए क्लटर प्रत्येक घर मे निर्विरोध विजेता के रूप मे वर्चस्व रखता है.

कोरोना काल मे, क्षमा करें मुझे अगर मेरी बात बुरी लगे कि ज़ब ज़िन्दगी का भरोसा नहीं कल हो ना हो, क्या मानसिकता है जो हमें अटैच्ड रखती है क्लटर से? जफ्फा डाल के रखते हैँ हम चीज़ों को. क्या हम सचमुच ये चाहते हैँ कि हमारे द्वारा संभाला सहेजा क्लटर हमारे बाद कोई देखे फिर फेंके? मोक्ष और निर्वाण के अभिलाशी हम क्यों अनासक्त हो नहीं पाते बेवजह भरे अपने घर के सामान की भीड़ से?

सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं.

साथियों,अपने घर को कभी कभी पहली बार आये आगँतुक विजिटर के दृष्टिकोण से देखना, बांचना, आकलन करना बहुत ज़रूरी है क्यूंकि हमारा घर और उसका माहौल हमें परिभाषित करते है.

कुछ असाधारण प्राणी भी पाये जाते हैँ जिनके घर बहुत सुव्यवस्थित होते हैँ पर क्लटर प्रेमियों को वो सनकी प्रतीत होते है ,किसी और दुनिया से सम्बद्ध  क्यूंकि उनके अनुसार घर घर जैसा दिखने के लिए क्लटर की उपस्थिति अनिवार्य तत्व है. 

ये कहना उचित नहीं होगा कि घर की एनर्जीज केवल क्लटर की वजह से नेगेटिव होती हैँ पर ये सच है कि क्लटर हमारे मूड के ग्राफ को काफी ऊंचा नीचाँ करने का सामर्थ्य रखता है.

क्लटर मैनेजमेंट के लिए कई मेथडस प्रयोग किये जाते है फोर बैगज़ मेथड -बेकार , रखने वाली चीज़ेँ, देने वाली चीज़ेँ, रेलोकेट करने वाली वस्तुएं. एक है- keep one, leave one method यानी डुप्लीकेट वस्तुओं मे से एक रख लो, एक निकाल दो, अन्य तरीका है वर्ष भर के 365 दिन रोज़ एक  स्पेयर चीज निकालो जिसकी आप को ज़रूरत ना हो. तरीका कोई भी अपनाएं पर हाँ शुरुआत ज़रूरी है.
वो कहते हैँ ना कि हज़ारों मील के सफर की शुरुआत एक छोटे से कदम से होती है पर क्लटर मैनेजमेंट के सन्दर्भ मे
शुरुआत सबसे अधिक कठिन है. TS Eliot कहते हैँ ना :

'shall I atleast set my lands in order?'

और हमारी स्थिती Eliot के Prufrock की तरह होती है :

'And how shall i begin?'

और दुविधाओं से भरे हम टालते चले जाते है, टालते चले जाते हैँ...

'There will be time, there will be time...'

साथियों, ये नेक शुरुआत तो उस विशेष क्षण पर निर्भर करता है जब हम खुद से कहते हैँ:

'ENOUGH. NO MORE'.

'और नहीं बस और नहीं'.

चेतावनी - कभी भी क्लटर को सफा करने की शुरुआत किन्ही सेंटीमेंटल चीज़ों से ना करें.. प्लीज ऐसे मे कुछ पुख्ता सा हो ही नहीं पायेगा. यादों के जज़ीरे मे ख्याल परेशान करने लगते है कि क्या कोई हमारी भी कोई चिठ्ठी, पत्री, हमारे  हाथ का बुना, सिला, कढ़ाई किया रखेगा संभाल के.. साथियों, सच तो ये है कि हम तो ऐसे सफाई अभियान मे ख़ुद ही  घिर जाते है...अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम, स्मृतियों के गोते उस पर  अशंकित हम!  हमारा रब्ब ही जानता है कितना चुनौतीपूर्ण है क्लटर को साफ करना.

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

अपने बीते सुन्दर वक़्त के साथ जुड़ी हमारी चीज़ेँ -अपनी निजी डायरीज, कवितायेँ, बचपने भरा लेखन जो हमें उस युग की याद दिखाती हैँ  ज़ब हम खूबसूरत थे और बहुत से अनकहे लफ़्ज़ों से तस्वीरे बनाते थे, उन दिनों की सिहरने जगाते सामान को किस करीने मे बांधे?  रहने देते हैँ यूँ ही पड़ा उसको. गुलज़ार कहते हैँ ना :

एक पुराना मौसम लौटा
याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है
वो भी हों तन्हाई भी...

21वी शताब्दी के दूसरे दशक तक आते आते क्लटर के स्वरुप मे अभूतपूर्व इज़ाफा हुआ है.वो युग अच्छा था जब चूल्हे पे खाना बनता, छत पे हारे मे दूध और डाल पकता, तंदूर मे लगती थीं रोटियां  इतने गैजेट नहीं थे, ना उनकी रेप्लसमेंट्स , ना उन से जुड़े कबाड़ इतना, पुराने चार्जेर्स, वायरज़ और ना ही होड़ थीं ऑनलाइन ये मंगाने और वो मंगाने की और फिर उनकी इतनी सशक्त पैकिंग भी फेंकना हर एक के बस की बात कँहा!! हमें भी यही लगता है जैसा शायद हमारे बारे मे हम से पहली पीढ़ी को लगता था कि इस पीढ़ी को शायद सब फेंकने की पड़ी रहती है. क्लटर की परंपरा पुश्त दर पुश्त चलायमान है कंस्यूमरिज्म की विसंगतियों के साथ.अपने सामान को देख सोच आती ही है कि जो कंही के नहीं रहते वो कँहा जाते हैँ 
आज की समस्या बहुतायत की है. हमारी समृद्धि क्लटर बन जाती है:

जिसको खुश रहने के सामान मय्यसर सब हों
उसको खुश रहना भी आये ये ज़रूरी तो नहीं..

जब जो चाहिए चीज वो होते हुए भी ना मिले तो  सम्पन्नता मे अभाव की सी फीलिंग होती है. कचरा भी सही सहेज के रखा जाता है तो रिसोर्स कहलाता है  और हमारी बेशकीमती चीज़ेँ हम क्लटर बना के पड़ा रहने देते हैँ क्यूंकि साथियों, कंही हमारी समृद्धि तंगदिली मे महफूज़ रहती है. ज़रा सा सहेजी चीज़ों को किसी और को देने मे हमें लगता है जैसे हमारा खजाना खो जायेगा. निदा फज़ली के शब्दों मे :

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है...

साथियों , समस्या ये है कि थ्री R सिद्धांत अपनाने मे हम नाकामयाब हो चुके है  Reduce नहीं कर पाते खरीददारी, Reuse हमारी शान के खिलाफ है, Recycle मे आड़े आती है कमी वक़्त की है.. वक़्त सचमुच कम है, बेशकीमती भी. 

डी क्लटर करना हो या क्लियर करना हो क्लटर , सबसे पहले ज़रूरी है उसका स्वीकार, मौजूदगी कि हैँ क्लटर्ड हमारहा परिवेश, हमारे घर kw माहौल पे है क्लटर का ग्रहण चाहे दबा छिपा. उस स्वीकार से ही  संभव है समाधान और सुखद परिवर्तन. इस बात के निर्णायक हम स्वयं ही हैँ कि क्या क्या हमारी ऊर्जा को क्षीन करता है या उसे बढाता है और सनद रहे साथियों, क्लटर जागरूकता का विकसित होना प्रशस्त करता है मार्ग उस से बचाव का, उसके प्रबंधन का. 

साथियों, क्लटर के प्रति अवेयरनेस निहायत निहायत ज़रूरी है और एहत्यात भी कि कंही ये क्लटर हमारी मानसिकता को ना दबोच ले कि हम इस के साथ राज़ी राज़ी रहने लगे. सतत जागरूकता ना केवल हमें क्लटर फैलाने से रोक सकती है बल्कि अपने परिसर को क्लटर फ्री करने मे सहायक बन सकती है.अगर क्लटर सुरसा के मुख की मानिंद है तो हमारे इरादे को भी हनुमानजी की भान्ति उस से दोगुना होना होगा तभी हम अपनी अच्छी एनर्जीज को क्षतिग्रस्त होने से बचा सकते हैँ .

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ..

जैसे योगा मे मशक्क्त करने के बाद जब शव आसन की बारी आती है तो ट्रेनर कहते हैँ एकदम ढीला छोड़ के, महसूस कीजिये.. की हुई एक्सरसाइजस का प्रभाव आपके शरीर पे- यकीन मानिये क्लटर जब कम कर पाते हैँ तो उसके बाद कुछ ऐसी ही सुकून बख्श अनुभूति होती है. बड़ा ज़रूरी है अपनी मेहनत के लिए खुद को साधुवाद देना, खुद को ट्रीट देना जिस से खुशी मिले, उपलब्धि का एहसास हो और हम रह सकें उर्जित चार्जित बिंदास, प्रफुलित.

Elan Vital - Sumedha Kataria Talks- 2

ऊर्जा अपरिमित श्रृंखला - दूसरी कड़ी


साथियों, क्या कभी हमने सोचा है हम चाहते क्या हैँ? सोचते तो ज़रूर हैँ कि हम ये चाहते हैँ, वो मिल जाये, ये पा लें हम इत्यादि इत्यादि. सबसे पहले तो ये जानना बहुत ज़रूरी है कि जो हम चाहते हैँ क्या हमने उसे सकारात्मक जामा पहनाया है या नकारात्मक. उदाहरणत्य हम सब चाहते हैँ समान्यतः कि हम खूब खुश रहें, समृद्ध हों, आनंदित हों, सौहार्द और स्नेह से भरे हों हमारे सम्बन्ध.. बस, हर सुख सुविधा हो और शान्ति हो जीवन में. सही?

पर जो हम चाहते हैँ क्या हम उसे भावों में ढालते हैँ कभी? क्या हम अपनी इच्छाओं को अपनी वाइब्रेश्नज /ऊर्जा में आत्मसात करते हैँ कि अगर हम खुश होंगे, समृद्ध होंगे, हमारे सम्बन्ध स्नेह परिपूर्ण होंगे तो हम कैसा महसूस करेंगे? Have we ever tried to inhale that feeling of joy we would feel when all our hearty desires are fulfilled, granted by Almighty?

मुझे ऐसा लगता है कि वो सब जो हम शिद्दत से चाहते हैँ वो कंही हम अपने भीतर किसी दर्द की मानिंद खुद से भी छिपा के  मन के गहन तरीन कोने में समेट के रख भर लेते हैँ, प्रिय होती हैँ हमें वो सब चीज़ेँ जो हम चाहते हैँ, हमारे ख्वाबों की मानिंद भीतर तरीन पलती हैँ वो. शायद ऐसे ही जैसे वो एक गीत है ना...'हर दर्द हमने अपना अपने से भी छिपाया ..'

दूसरी और हम रोज़ मर्रा कि ज़िन्दगी में जो अभिव्यक्ति देते हैँ,  अमूमन हम ऐसा कहते हुए सुने जा सकते हैँ....कंही मैं बीमार ना पड़ जाऊं, कंही हॉस्पिटल ना जाना पड़ जाए, कंही कर्ज़ा ना लेना पड़े, कंही मेरी बेइज़्ज़ती ना हो जाए.

जैसे हमने कंही बाहर जाना है तो सबसे पहले हमारा डर निकल के आता है, 'रब्बा कोई एक्सीडेंट ना हो जाए' या हमारे किसी प्रिय ने परिजन ने कंही दूर जाना है, महत्वपूर्ण काम से है तो भी मन में दुआएँ तो होती हैँ पर डर उस से भी ऊपर 'कंही कुछ हो ना जाए, ऐसा ना हो कि काम ना हो' , क्या ये सच नहीं है?.

ऐसा अगर सचमुच होता है तो साथियों रुकिए,सोचिये अपनी अभिव्यक्तियों को क्रिटिकली बांचने का प्रयास करें , अपने शब्दों का, भावों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना ज़रूरी है उनका कि जो शब्द हम प्रयोग कर रहे हैँ वो पोज़िटिव हैँ या नेगेटिव? सोचिये कंही हम अपनी नकारात्मक भावों से या नेगेटिव अभिव्यक्ति से अपने लिए न्योता तो नहीं दे रहे नेगेटिविटी को. हम ऐसा भी तो महसूस कर सकते हैँ कि 'राज़ी ख़ुशी वापिस आ रहे हैँ, काम बन गया है'- वो ख़ुशी भी तो महसूस कर सकते हैँ ना.

हम अगर सचमुच अच्छा चाहते हैँ कि हमारे साथ सही हो, हम स्वस्थ हों, अमीर हों, भाग्यशाली हों, खुश हों तो हमें अपने  में इन भावों को सकारात्मक शब्दावली देनी होंगी और ज़ुबान पे भी ये सुनिश्चित करना होगा कि हम क्या कह रहे हैँ, कंही वो उस से उलट तो नहीं जो हम चाहते हैँ. बच्चों को अक्सर 'बुद्धू, नालायक' कह देते है हम-हो सकते है वो इसी भाव को आत्मासात कर लें..अगर हम उन्हें शाबाशी वाले भाव देंगे तो उनका उत्साह वर्धन होगा वो वैसा ही करना चाहेंगे कि शाबाशी मिले, है ना ऐसा?

बात डरने की नहीं है , हाँ चौकन्ने होने की ज़रूर है क्यूंकि हम जैसी एनर्जीज को, अपनी वाइब्रेशन्स के माध्यम से यूनिवर्स में भेजते हैँ वो कई गुना हो के हमारे पास लौट के आती हैँ. Rhonda Byrne की किताब 'द सीक्रेट' या जो विताली की Law of attraction में भी यही प्रदत्त है कि हम जैसी affirmations देंगे वैसे ही भावों को हम  अपनी और आकर्षित करेंगे.

एक बात बताऊँ? वास्तव में मैं भी बहुत नेगेटिव शब्दों का इस्तेमाल करती रही बहुत उम्र तक और ये मुझे तब एहसास हुआ जब मैंने एनर्जी के बारे में, एनर्जी की आकर्षण करने कि क्षमता के बारे में जान ना शुरू किया तो मुझे लगा सच! हम स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैँ!! और फिर मैं आसपास के सब के शाब्दिक अभिव्यक्तियों की विवेचना शुरू की तो पाया कि हम सब ऐसा ही करते हैँ... चाहते तो अच्छा हैँ पर ज़ुबान पे या मन में हमारे उसके विपरीत भाव पालते हैँ- 'मैं तो ऐसी ही हूँ',  'अब मेरा कुछ नहीं हो सकता',  'मेरे साथ ही हमेंशा बुरा क्यों होता है', 'मेरा तो खुशी पे कोई हक़ है ही नहीं', 'मेरे कर्ज़े तो मेरे साथ ही ख़त्म होंगे' , 'मैं डिप्रेशन में जा रही हूँ, ऍम सिंकिंग' - और ये सिलसिला अंत हीन है. जबकि हम जो है हमारे पास, दाता की इनायतों के रूप में, उसे भी तो देख सकते हैँ,  शुकराने के भाव के साथ जी सकते हैँ..

We are blessed by everything,
everything we look upon is blest...

समथिंग गुड इन एवरीथिंग का भाव....

अल्लामा इक़बाल का शिकवा  जवाबी शिकवा  जो इंसान और खुदा के बीच का संवाद है उस में खुदा के जवाब की पहली पंक्तियाँ हैँ :

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताकते परवाज़ मगर रखती है
(Those words which are expressed  from the core of the heart have an effect, they may not have wings but they have the power to reach God...)

हमें ये सुनिश्चित करना होगा कि हमारे अलफ़ाज़ सकारात्मक हों, हमारे भावों के साथ, स्वपनो के साथ मिल खाते हों.. जिसे हम कहेँगे कि हमारी affirmations का positive होना निहायत ज़रूरी है. हम चाहते हैँ अगर एक्सेल करना, मेरिट में आना तो सोच से ये ये डर निकालना ज़रूरी है कंही मैं फेल ना हो जाऊं.

ब्रह्माण्ड की ऊर्जा जिसे किसी भी स्वरुप मे मानते हों हम  इष्ट, खुदा, दाता को लाइटली नहीं लेना चाहिए, वो तो

दिल की हर लर्ज़ीशे मुजतर पे नज़र रखते हैँ
वो मेरी बेखबरी की भी खबर रखते हैँ

ये सब होने विचारों, भावों और अभिव्यक्तियों के बारे मे ज़िम्मेवार होने की और इंगित करता है. हम जैसा महसूस करते हैँ, दिल से, हम वैसा ही भाव आकर्षित करते है. अगर हम सकारात्मक परिणाम चाहते हैँ तो हमें अपने भावों को भी पॉजिटिव सांचे में ढालना है और अभिव्यक्ति को भी.

Elan Vital - Sumedha Kataria Talks- 1

ऊर्जा अपरिमित श्रृंखला -प्रथम कड़ी


पिछले कुछ अरसे से निरंतर मन में रहा है कि मुझे एनर्जी /ऊर्जा के प्रति जागरूकता के लिए काम करना है. वास्तव में मुझे स्वयं एनर्जी के प्रति जागरूकता ज़िन्दगी के पांच दशक बीतने के बाद हुई, सोचती हूँ यदि यही एनर्जी जागरूकता का एहसास उम्र के फॉर्मटिव फेज़ में हो जाये तो ज़िन्दगी को और बेहतर ढंग से जीया जा सकता है. इसी दृष्टिकोण से आपसे अपने विचार, अपनी सोच सांझा करने के लिए ये पॉडकास्ट सुमेधा कटारिया टॉकस. इसका शीर्षक दिया है एलान विताल (elan vital) जो एक फ्रेंच फरेस है जिसका मतलब है हमारे भीतर निहित सृजन शक्ति जो संवर्धन( ग्रोथ ) और अनुकूलन के लिए इच्छुक है, तैयार है.

शब्दकोष में ऊर्जा के अर्थ खोजते हैँ तो हमें गतिज, स्थितिज ऊर्जा , विद्युत्, ध्वनि, यात्रिक, सौर ऊर्जा इत्यादि इत्यादि अर्थ मिलते हैँ.. मूल अर्थ हमारी कार्य करने कि क्षमता ही ऊर्जा है. मानवीय ऊर्जा कि जब हम बात करते हैँ तो ये हमारे भीतर बिखरी हुई तरंगे हैँ, जीवंत  एलक्टरो मैगनेटिक वेव्स (electro magnetic waves)जिन्हे कंही ची और कंही की कहा जाता है. इन तरंगों का प्रवाह  जितना लचीला , शांत, सरल और सुगम होता है उतना ही हम सही फोकस कर सकते हैँ, अपनी बात को सही से व्यक्त कर सकते हैँ. काबिले गौर बात ये है कि इस अंदरूनी ऊर्जा का प्रवाह शरीर के अलग भागों में खंडित, बाधित या कुंद जाता है ठीक वैसे ही जैसे नदी में जल का प्रवाह किसी चट्टान के आगे आ जाने से बाधित हो जाए.. तो हमारे मूड, एकाग्रता, और स्वास्थ्य कुप्रभावित होता है.. एडवर्सली अफेक्ट होता है, थकान होती है, क्रोध आता है या अन्मयस्क हो जाते हैँ हम. नींद, आराम, भोजन, ध्यान, मनन, पठन, संगीत, कला, साहित्य एनर्जीज की ज़रूरत हैँ चार्जिंग के लिए.

साथियों , इस पॉडकास्ट के माध्यम से आप को साथ ले के इसी दिशा में चलना चाहती हूँ कि आओ मिल कर सोचें, चर्चा करें एक दूजे से सीखें और सांझा करें ऊर्जा अपरिमित जो हम सब में है उस को जानें, और कैसे सही दिशा में उसे लगा कर  अपने लिए बेहतर परिवेश का निर्माण करें. हो सकता है..

गुलशन ना कर सकें जहाँ को
पर कांटे ही कम कर दें, गुज़रे जिधऱ से हम.

शरीरिक एनर्जी.. अभिप्राय बहुत सक्रिय रहने की या बिना थके अत्‍यधिक श्रम करने की क्षमता; पर व्यक्तितव जँहा ऊर्जावान होता है वंहा क्षमता की सीमाएँ ख़त्म हो जाती हैँ बस एक ही चेष्टा रहती है ध्येय कि प्राप्ति, मकसद को पाना, लक्ष्य तक पहुंचना. यानी एनर्जी के साथ ज़रूरी है ध्येय, चिड़िया कि आँख की मानिंद एकाग्रता, फोकस कुछ प्राप्त करने का और मैंने देखा है, महसूस किया है कि जँहा मकसद निजी ना हो कर, केवल अपने हित को ना सोच कर बड़ा मुकाम, बड़ी सोच, अपने निजपन कि परीधी से बाहर सामाजिक या सामान्य हित का होता है तो उसे पा कर सुख और ख़ुशी कि जो अनुभूति होती है वो अवर्णननीय होती है, शब्दों से परे, अलग ही प्रकार के आनंद की परिचायक.

अध्यापन कार्यकाल में NSS की बच्चियों को फील्ड में काम करते देखा तो पाया क्या ग़ज़ब का फर्क ले आती थीं वो दूसरों की सोच में, धरातल पर और फिर सफई अभियान होता या साक्षरता, कन्टीली झाडियों को सफा करना होता या ग्रीन क्लीन कैंपस में जुटना, ऑय डोनेशन पलेज कैंपेन होता या गरीब बच्चों  के लिए गरम कपडे इकठा करना या किताबें जुटाना... हैरान कर देती थीं मुझे छात्राओं कि एनर्जी. सच, सलाम है मेरे NSS के साथीगण को कि मुझे बहुत होंसला मिला उनसे और कितने ही अभियान चलाने का और हिम्मत मिली हार ना मानने की हिम्मत, जज़्बा हम होन्हे कामयाब का.

पर थोड़ा सोचने कि बात ये भी है कि हम में से कितने लोग परिचित हैँ अपने में छिपी एनर्जी से, और कितने लोग सोचते हैँ अपनी एनर्जी को प्रयोग करने का, उसे दिशा देने का, उस से कुछ ऐसा कर गुजरने का जिस से ख़ुशी मिले अपने होने की सार्थकता प्रतीत हो एक अच्छा नागरिक होने में.  कंही ऐसा तो नहीं कि हम से मिल कर किसी कि एनर्जी कम हो जाए या हमारी अभिव्यक्ति या शब्दों से  नेगेटिविटी पहुंचे दूसरों तक और अगर हमने अपनी पॉजिटिव एनर्जी का ऑडिट करना हो तो हम खुद को 10 में से कितने नंबर देंगे.. सच सच बताना प्लीज, बताएँगे ना?

अब ज़ब कि फाल्गुनी रंग फ़िजाँ में बिखरे हुए हैँ, प्रकृति का स्वभाविक और सुन्दर स्वरुप हरितमा में, हवा की मस्त चाल में, फूलों कि कॉम्पलों में, पत्तों कि थिरकन में मेहसूस कर सकते हैँ ऐसे में एलान विटाल वो अंदरूनी ऊर्जा जो हमें जीवंत बनती है इसी की प्रथम कड़ी है ऊर्जा अपरिमित.. हम में सतत प्रवहशील अपार ऊर्जा जिसे channelise कैसे करें ताकि हम जगरूकता की उच्च अवस्था पे जा सकें और यही नहीं कि एनर्जीज़ को हर परिपेक्षय से जानें बल्कि ये भी सुनिश्चित कर सकें कि हमारी एनर्जीज क्षीन ना हों, हम उर्जित भी रहें, इतना चार्जेड भी कि कोई हम से मिले तो उर्जित चार्जित हो जाये. तो आत्म अंवेशन कि इस यात्रा पे चलना चाहेंगे आप मेरे साथ?