Sunday, January 6, 2013

पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 

पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 
 वतन सच! बहुत याद आया   
बहुत याद आई धूप यंहा की 
रंग मौसमी और रुख हवा का 
वो गर्मी, पसीना, बरसात अपनी सी,
वो तम देर सांझ का 
वो रूहानी रंग सुबह का 
पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 
अपना वतन सच! बहुत याद आया   

बहुत याद आया लाड उमड़ता माँ का 
छुटपन अपना सा ,बड़प्पन उन का 
ख़त पिता के , वो युग डांट डपट का 
रूठे से बचपन को मनाता 
इसरार  उन का 
पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 
अपना वतन सच! बहुत याद आया   

बहुत याद आई यंहा की माटी 
सोंधी सी खुशबु 
यूं ही बरबस आँख डबडबाती 
खुला आ आसमान अपने घर की छत का 
बरसात से भर आया गलियों में समंदर अपना सा 
और कड़कती सी सर्दी में चूल्हे का जलना 
मिलजुल के खाना गस्सी गस्सी फुल्के का 
पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 
अपना वतन सच! बहुत याद आया   

मन की हम में कमियां बहुत हैं 
पर हम सी अमीरी भी कंही नहीं है 
नहीं है परिजन का प्यार  कंही ऐसा
स्नेह की छाँव का फैलाव जैसा 
नहीं हैं यंहा जैसे रिश्तों के ताने बाने 
न झगडे, न किस्से नए न पुराने 
हर इक कोइ अपने में मस्त पड़ा है 
कंही अकेले हैं वृद्धजन 
तो कंही अकेला सा बचपन पड़ा है 
पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 
अपना वतन सच! बहुत याद आया   

सीखने को तो घूमना है ज़रूरी 
इच्छा कंही रह न जाये अधूरी 
धुरी की माप लो चाहे दूरी पूरी 
पर सच है की जब वतन से होती है दूरी
 तभी अपनत्व की कद्र पड़ती है पूरी 
अपनी माटी सा नहीं कोइ सुंदर सरमाया 
पश्चिम के पाले से पाला पड़ा तो 
अपना वतन सच! बहुत याद आया   

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